Saturday, August 8, 2009

मेरा मन

पोस्‍ट नंबर 15

मैं (मेरा मन) तुम्‍हारे शहर से
कोरा लौट रहा हूं।
मुझे कोई छू न सका, पा न सका
सब के सब व्‍यस्‍त थे अपने में
सब के सब मस्‍त थे केवल अपने में।

फिज़ा में रश्‍क था, रंज था,
खुशी थी - बेखुदी थी,
किसी के दामन के दो चार बूंद आंसू भी
अफसोस है कि मेरे लिये नहीं थे।

सहमे - सहमे सोच-सोच कर
फूंक - फूंक कर कदम रखते हुये शब्‍द
मुझे छूते हुये डर रहे थे।
जाने-अनजाने वे सभी लोग
अपनी-अपनी बेइमानी पर मर रहे थे।

रो रहा था वो (उनका) लावारिस गुनाह
क्‍योंकि उसे कोई भी खुले आम
अपना कहने को तैयार न था।
लेकिन मात्र यही ऐसा मंजर था
जो सबको परेशान किये था।

और मेरे जैसा आदमी
हर नकाब पड़े चेहरे की असलियत को
बार-बार देख कर
न रो रहा है, न हंस रहा है,
जब हमेशा-हमेशा के लिए
मैं तुम्‍हारे शहर से लौट रहा हूं।

नोट : बेचारा गुनाह हमेशा लावारिस ही होता है।

From the desk of : MAVARK

6 comments:

  1. बहुत गहरे से आज के सच को भावों मे पिरोया है सुन्दर रचना के लिये बधाई

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  2. BHAVABHIVYAKTI MUN KO CHHOTEE HAI.BADHAAEE.

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  3. हर चेहरा ढका है नकाब की कई कई परतों में ...बस उसके बीच से ही तो कुछ ढूंढ लाना है ..!!

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  4. बहुत खूबसूरत
    बेहतरीन भाव
    वाह

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स्‍वा्गतम्