पोस्ट नंबर 15
मैं (मेरा मन) तुम्हारे शहर से
कोरा लौट रहा हूं।
मुझे कोई छू न सका, पा न सका
सब के सब व्यस्त थे अपने में
सब के सब मस्त थे केवल अपने में।
फिज़ा में रश्क था, रंज था,
खुशी थी - बेखुदी थी,
किसी के दामन के दो चार बूंद आंसू भी
अफसोस है कि मेरे लिये नहीं थे।
सहमे - सहमे सोच-सोच कर
फूंक - फूंक कर कदम रखते हुये शब्द
मुझे छूते हुये डर रहे थे।
जाने-अनजाने वे सभी लोग
अपनी-अपनी बेइमानी पर मर रहे थे।
रो रहा था वो (उनका) लावारिस गुनाह
क्योंकि उसे कोई भी खुले आम
अपना कहने को तैयार न था।
लेकिन मात्र यही ऐसा मंजर था
जो सबको परेशान किये था।
और मेरे जैसा आदमी
हर नकाब पड़े चेहरे की असलियत को
बार-बार देख कर
न रो रहा है, न हंस रहा है,
जब हमेशा-हमेशा के लिए
मैं तुम्हारे शहर से लौट रहा हूं।
नोट : बेचारा गुनाह हमेशा लावारिस ही होता है।
From the desk of : MAVARK


बहुत गहरे से आज के सच को भावों मे पिरोया है सुन्दर रचना के लिये बधाई
ReplyDeleteBHAVABHIVYAKTI MUN KO CHHOTEE HAI.BADHAAEE.
ReplyDeleteहर चेहरा ढका है नकाब की कई कई परतों में ...बस उसके बीच से ही तो कुछ ढूंढ लाना है ..!!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत
ReplyDeleteबेहतरीन भाव
वाह
khoobsurat rachna... :)
ReplyDeletevery nice line....
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