Saturday, August 29, 2009

बेमौसम की होली



पोस्‍ट नंबर - 19
बेमौसम की होली
बीजेपी की टोली
1. हम आप सभी होली खेलते हैं, एक दूसरे पर रंग डालते हैं
गुलाल लगाते हैं, कीचड़ फेंकते हैं, गोबर फेंकते हैं,
कीचड़ में‍ छिपाकर कंकड़ मारते हैं, बहाने से धक्‍का दे देते हैं
और मौका मिलते ही औंधे मुंह पटक देते हैं!
कभी कभी थूक देते हैं , और कभी कभी ........................
क्‍योंकि हम होली अपने अपने मानसिक स्‍तर के अनुसार ही खेलते हैं
2. होली ज्‍यादातर अपने अपने गुट में ही खेली जाती है
ये बात और है कि आपकी होली देखकर दूसरे मजा लेते हैं
लेकिन मजा भी अपने अपने मा‍नसिक स्‍तर के अनुसार ही लेते हैं
आशा है आप भी आजकल की बेमौसम की होली को देख रहे होंगे, पर मुझे नहीं मालूम कि आप मजा ले रहे हैं या दुखी हो रहे हैं ।
3. कभी कभी हम लोगों को अपने अतीत के पन्‍नों में खोई हुई कुछ बेहद दिलचस्‍प और शिक्षाप्रद यादें ताजा हो जाती हैं।
एक बार कुछ अनपढ़, उजड्ड लोगों ने ऐसी होली खेली कि सबके कपड़े तक फट गये केवल कीचड़ ही उनकी लज्‍जा निवारक बनी थी !
शुक्र है उस गुट के सभी लोगों ने एक दूसरे पर खूब गीली काली और बदबूदार कीचड़ फेंकी थी
दुनिया की नजरों में तो वे नंगे थे लेकिन उनको लग रहा था कि कीचड़ की मदद से उनका
नंगापन छिपा हुआ है क्‍योंकि वो बदबूदार कीचड़ के आदी बनते जा रहे थे।
उसी में उन्‍हें सब गुण नजर आ रहे थे।
होली में जोश होता है, जुनून होता है,
एक दूसरे के प्रति संवेदनहीनता नहीं होती। उम्र का बंधन नहीं होता।
From the desk of : MAVARK
* वैसे तो मैं किसी भी पार्टी या गुट के बारे में कुछ लिखना पसंद नहीं करता लेकिन जब कुछ ऐसा हो रहा हो जिसका असर पूरे देश पर पड़ रहा हो और पूरा विश्‍व हंस रहा हो तब कुछ न कुछ कहना ही पड़ता है।

Friday, August 14, 2009



POST NO. 18
WISHING YOU ALL A VERY VERY HAPPY INDEPENDENCE DAY
सरहद तक आंगन है
हम धरती के फूल, गगन पावन माटी चन्‍दन है,
देश एक परिवार हमारा,सरहद तक आंगन है।
सतरंगे सुमनों की शोभा , सब धर्मों की क्‍यारी,
मानवता की महक सभी में देश एक फुलवारी।
नाचें, गायें, खेलें, कूदें , भरें सभी किलकारी,
इस माटी को नमन करें, है जो प्राणों से प्‍यारी।
द्वेष,घृणा या लोभ सरीखे, भाव न मन में लायें,
कभी न मांगे, कभी न छीनें, पौरुष से उपजाएं।
श्रम आधार और समता ही जीवन शैली होगी,
कभी न हम से,मानवता की चादर मैली होगी।
ऐसा दृढ़ संकल्‍प हमारा , जीवन में अपनायें,
सबके लिए खुशी-खुशहाली इस जगती पर लाएं।
(1986)
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BY: From the desk of MAVARK

Wednesday, August 12, 2009

स्‍वप्‍न और देश


पोस्‍ट नंबर 17

स्‍वप्‍न अधूरे रह जाने से,
कोई देश नहीं मरता है।
सपनीली नव कलिका से ही
ठूंठ हरा हो कर भरता है।

जीवन के कोटर में विषधर,
फण को ओट किए बैठे हैं।
सजग चुनौती की मुद्रा में
पारधि प्रत्‍यंचा ऐठें हैं।
मेरी मौत भले हो जाए,
जन विश्‍वास नहीं मरता है।
स्‍वप्‍न अधूरे रह जाने से,
कोई देश नहीं मरता है।

दिया न जिनके घर जल पाया,
चूल्‍हे में बिस्‍तुइया सोई।
तनिक भात के लिए ठुनकती,
मां की कोख बालिका रोई।
अन्‍न भरे भण्‍डार कहरते,
उसका पेट नहीं भरता है।
स्‍वप्‍न अधूरे रह जाने से
कोई देश नहीं मरता है।

टिटुआ है हथियार बन गया,
संसद के गलियारे में भी।
मड़ई उसकी जले बारहा,
प्रतिनिधि पंच सितारों में ही
संसद के गलचौरे से भी ,
उसका मौन असह्य लगता है।
स्‍वप्‍न अधूरे रह जाने से,
कोई देश नहीं मरता है।

तुम सपने को दुत्‍कारो पर,
मानव की लाठी है सपना।
है जिजीविषा का सम्‍बल यह,
बच्‍चों की किलकारी सपना।
सपने मर जाने से शायद,
कोई देश मरा करता है।
स्‍वप्‍न अधूरे रह जाने से,
कोई देश नहीं मरता है।

सभार : काव्‍य पुस्‍तक
"पर अभी संभावना है"
लेखक डॉ. सूर्यपाल सिंह (http://www.purvapar.com/) ई मेल drspsingh@purvapar.com

Monday, August 10, 2009

पर अभी संभावना है


पोस्‍ट नंबर 16

दांत पैने हो गए हैं,
और पंजे कस गए हैं,
रहनि चिरइन की कठिन है
पर अभी संभावना है।

रात भीगी तम घना है,
अन्‍धड़ों का रौ बना है,
लौ दिया की है कठिन पर,
प्रात की संभावना है।

धनु अहेरी के खिंचे हैं,
अंग भर कांटे चुभे हैं,
पंख चिरइन के खुले हैं,
इसलिए संभावना है।

पीर चिरइन की गुनी है,
उठ पड़ी पूरी अनी है,
पीर की कहनी कठिन पर,
शब्‍द हैं संभावना है।

सभार : "पर अभी सम्भावना है" नामक पुस्तक से ! लेखक : Dr. S. P. Singh

ई मेल drspsingh@purvapar.com

Saturday, August 8, 2009

मेरा मन

पोस्‍ट नंबर 15

मैं (मेरा मन) तुम्‍हारे शहर से
कोरा लौट रहा हूं।
मुझे कोई छू न सका, पा न सका
सब के सब व्‍यस्‍त थे अपने में
सब के सब मस्‍त थे केवल अपने में।

फिज़ा में रश्‍क था, रंज था,
खुशी थी - बेखुदी थी,
किसी के दामन के दो चार बूंद आंसू भी
अफसोस है कि मेरे लिये नहीं थे।

सहमे - सहमे सोच-सोच कर
फूंक - फूंक कर कदम रखते हुये शब्‍द
मुझे छूते हुये डर रहे थे।
जाने-अनजाने वे सभी लोग
अपनी-अपनी बेइमानी पर मर रहे थे।

रो रहा था वो (उनका) लावारिस गुनाह
क्‍योंकि उसे कोई भी खुले आम
अपना कहने को तैयार न था।
लेकिन मात्र यही ऐसा मंजर था
जो सबको परेशान किये था।

और मेरे जैसा आदमी
हर नकाब पड़े चेहरे की असलियत को
बार-बार देख कर
न रो रहा है, न हंस रहा है,
जब हमेशा-हमेशा के लिए
मैं तुम्‍हारे शहर से लौट रहा हूं।

नोट : बेचारा गुनाह हमेशा लावारिस ही होता है।

From the desk of : MAVARK