Saturday, February 21, 2009

एक उपन्‍यास

पोस्‍ट नंबर 9
एक उपन्‍यास
ऊंची कोठी, ढेरों दौलत,
बड़ी-बड़ी कारों की शान,
एक नहीं तेरह दरबान,
सबके सब सधे हुये,
मैडम से डरे हुये।

कौन कहां से, क्‍यों, क‍ब आया,
किसने कैसा रंग जमाया ?
कभी किसी ने जान न पाया,
कोई किसी से पूछ न पाया।

चला कई वर्षों तक धंधा,
लोगों का अनुभव था मंदा।
तभी समय ने करवट बदली,
लोग फिर गये, साये गुम गये।

दरबानों ने बिस्‍तर बांधे,
कोठी के कुत्‍तों ने भी,
अपनी अपनी आदत बदली,
गली मोहल्‍ले में फिर-फिर कर,
लगे चाटने जूठी पतली।

और एक अरसे के बाद,
उसी गली के सारे कुत्‍ते,
भौंक उठे हो कर खूंखार।
बच्‍चे भाग चले निज घर में,
चीखें मार मार होकर भय त्रस्‍त।

लगी बरसने दरवाजों पर,
तभी पत्‍थरों की बौछार।
मैडम अपनी आज गली में,
नंगी-बौराई घूम रही थी। 
From the desk of : MAVARK

6 comments:

  1. एतना गम्भीर विसय ब्लोग पर ! क्या ईरादा है ?
    पूरा नोवेल ऐक कविता मे/ बहुत सुन्दर, कमाल कर दिया !

    मनोहर सिंन्ह!

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  2. Mr. Mavark ji you are wonderful in saying a lot in very short .One has to read it many times to get the theame and full thought of your poems.

    congrates.

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  3. चित्र आपने जो खींचा है
    सच उपन्‍यास सरीखा है
    पूरा उपन्‍यास पहली बार
    कविता में दीखा है जी।

    कम शब्‍दों की लिए बौछार
    फिर भी भावनाएं अपरंपार
    लगे है सब ही उलीचा है
    उपन्‍यास नाम नहीं दीखा है।

    अगली किसकी बारी है
    जी
    टिक्‍कूजी कहां खो गए हैं
    छुटकऊ भी याद आता है
    किस्‍सा पुराना सताता है।

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  4. Mudda bahut sakht hai ........ kya varnan hai ..... aur haan aapka blog bhi bahut accha lag raha hai

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  5. शुक्रिया आपने मेरे ब्लॉग टिप्पणी की आपकी कविताओं में भी चमत्कार कम नहीं है।

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  6. very nice lines ...

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